Monday, March 13, 2017

Kagaz in crisis: A tale of investment for influence in newspaper industry

Unpalatable though it may appear, the most powerful weapon for freedom movement under the leadership of towering personalities like Tilak, Gokhale, Gandhiji and others who stood for progressive journalism and liberal notions and believed in the strength of the press to mould public opinion, to shape the destiny of the nation and safeguard the rights and civil liberties of its citizens – is nowadays itself appears struggling for existence. The strong belief of our freedom fighters that ‘pen is mightier than sword’ and the power of their pen can challenge the political establishment directed the Indian journalism with a sense of purpose, is weakened and lost its ground now.
The first attempt to start a newspaper in India was made in Kolkata. On January 29, 1780 the first Indian newspaper (often called ‘Kagaz’ in Bangla), the Bengal Gazette popularly known as Hicky’s Gazette consisting of two pages (12 by 8 inches in size) was published.
But, with politically-patroned business houses eying to make the oldest form of mass communication their tool of ‘fame and gain’, Kagaz has, more or less, lost its ground.
One of the prime concerns to the print culture all over the India is reducing advertising revenues. The revenue model of print follows the dual concept by Robert Picard. In this dual concept, newspaper in particular balances the content and advertisements in the paper. The content brings them subscribers and subscription brings them circulation numbers. Circulation numbers bring them advertisements, which lead to revenue. The revenue generated is again utilized to improve the content in the first place. This is how the dual concept revenue model helps print products. But due to the recent unabated influence, interference and interest of big business houses, the newspapers have become fishes out of water – gasping to breathe. Though in a country like India print culture has not died down as yet, but the future of this mass medium is definitely under radar.
In early 90s, when the Government of India decided to spread Liberalisation, Privatisation and Globalisation, the print media developed a sense of rejuvenation. They played a pivotal role in disseminating government policies. They were used as a tool to create propaganda in the public and create a favourable environment for the government policies. But, it was like curse in disguise that the newspapers could not anticipate. Different newspapers started behaving like support documentation or propaganda tool to promote different political parties. But, that game of ‘checks and balances’ didn’t last long. In 2014, when Narendra Modi got a landslide mandate despite strong criticism from big media houses, the sword of Damocles started hanging over their heads.
By nature Modi is authoritarian and dictatorial. And, despite what this past master at drumming up support for him propagates from public platforms, he only holds his own view most of the time. This leads one to the inescapable conclusion that he would bide his time before seeking to intimidate his critics in the media again in the future. Modi has always a little respect for journalists. The likes of Modi appear not sparing any opportunity to browbeat those who do not subscribe to his ideology or share his predilections – it would be the best possible choice for the big business groups to invest, influence and interfere in media affairs – to cater their monetary interests. At least, the fate that some of the big media players in India met in recent past indicates so!
The ‘unholy nexus’ between politicians, journalists and business houses has grown stronger now. And, it has also - since Prime Minister Narendra Modi took office in May 2014 - become more brazen as the masks have slipped and pretence has been dropped now! Paid news and private treaties are not the issues any more: they are far too common. The real cancer is the politicisation of journalism. No longer do the media houses fear a backlash to even serious charges of being fronts for money laundering of politicians and business houses. They know they have defenders of the faith within the highest echelons of the NDA government. Protection is assured - at least till the prime minister wields the axe.

But, one thing is inevitable: the paper-boat of newspapers is sinking! Sounds catastrophic? It is!

Thursday, November 17, 2016

नोटबंदी: चाटुकारों से घिरे एक मदान्ध व्यक्ति का तुगलकी फरमान

मैं वामपंथी नहीं हूँ और न ही दक्षिणपंथी बनने की अभिलाषा रखता हूँ| पर मैं प्रगतिवादी अवश्य हूँ – थोड़ा-बहुत प्रयोगवादी भी| पर प्रगति और प्रयोग दोनों की सीमाएं हैं और होनी भी चाहिए! ‘राजधर्म’ से लेकर ‘नोटबंदी’ तक नरेन्द्र मोदी ने जो प्रयोग किये हैं और उससे जो प्रगति हुई है, उससे उन्होंने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि ‘द्वारकाधीश वासुदेव’ बनने के चक्कर में वे ‘पौन्ड्रक वासुदेव’ बनते जा रहे हैं - चाटुकारों से घिरे हुए मदान्ध व्यक्ति की तरह – उनके संसदीय क्षेत्र वाराणसी की भाषा में ‘परम’ की तरह!

क्या किसी राजनेता या प्रधानमंत्री को अख्तियार है कि वो देश को एक झटके में पाषाण युग में ठेल दे - मुद्रा की खोज के पहले के जमाने में। आज का समय जब भी इतिहास के पन्ने में अंकित होगा कि कैसे एक प्रधानमंत्री ने भारत को इक्कीसवीं सदी से रातोरात पाषाण युग में पहुंचा दिया| इसकी तुलना केवल भारत विभाजन की त्रासदी से की जा सकती है।

मेरे एक अग्रज मित्र हैं! बिहार के एक कस्बे में प्राध्यापक हैं, अब डेढ़ लाख रुपये करीब वेतन पाते होंगे! दोनों बच्चे अपनी मंजिल पा चुके हैं! दिन भर में दो या तीन घंटी, बाकी समय फेसबुक पर मोदीनामा लिखना! उनका मानना था कि मोदी के इस नोटबंदी से जिसको भी घाटा हो रहा हो – अमीर हो या गरीब – भांड में जायें! मेरे मित्र जैसे आत्मग्रस्त मध्यवर्ग – जिसको मोदी के चेहरे में भारत के तकदीर को बदलने की रेखा दीखती है - को उस हिंदुस्तान का कुछ अता पता नहीं है , जिसकी अस्सी फीसदी आबादी बीस रुपए रोज से कम की कमाई पर ज़िंदा है। इस अस्सी फीसदी को रोटी , दवाई और सबसे जरूरी चीज - भारत का नागरिक होने के बुनियादी अधिकार की गारंटी - से महरूम कर दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने सही नाम दिया है । यह कार्पेट बॉम्बिंग है, अमीरों और कालाबाज़ारियों की तरफ से ईमान की रोटी खाने वाले गरीब अवाम पर। कोई भी सरकारी प्रचार इस तक़लीफ़ पर मरहम नहीं लगा सकता।

मोदी के इस कदम के शान में कसीदे गढ़ने वाले इन लोगों को यह पता नहीं है कि भारत को ऐसी तानाशाही बर्दाश्त करने का अनुभव नहीं है। अन्यथा, क्या औरंगजेब अकबर से कम था क्या? अंग्रेजों ने भी पुचकार कर ही इस देश में प्रवेश किया था| मैकियावेली ने कहा है कि राजा को सामान्य नागरिको की संपत्ति पर कठोरता नहीं बरतनी चाहिए क्योंकि वे पिता की मृत्यु भूल जाते हैं, उनका पितृत्व नहीं!

मोदीजी ने नए नोट पर राष्ट्रपिता के चेहरे को उलट दिया है| कहीं ‘बापू’ के खून-पसीने से सिंचित भारत की गरीब जनता जवाब देने पर उतर आई तो आप इसका उल्टा ‘पूबा’ खायेंगे मोदीजी।

Saturday, November 12, 2016

एक पाती मोदी के नाम: गरीबी पर सर्जिकल स्ट्राइक के लिए

एक पाती मोदी के नाम: गरीबी पर सर्जिकल स्ट्राइक के लिए

प्रिय नरेन्द्र मोदीजी,
आप तो हिला दिए! बैंकों के बाहर की कतारें और उनमें परेशान होते मेरे सरीखे हतभागी लोगों को तो वाकई आपने हिला दिया! कसम से किसी भी जगह मुझे एक भी काले धन वाला नजर नहीं आया, बाकी अडानी-अम्बानी तो मेरे पहुँच से बाहिर हैं, आपकी बात आप ही जानें!
लोग कहते हैं कि आपने काला-धन पर सर्जिकल स्ट्राइक किया है मोदीजी, पर कसम आपके गुजरात वाले द्वारकाधीश की, आपका यह निर्णय तो गरीबों को पीछे से पीला कर रहा है!
मैंने अपने छात्र जीवन में एक कविता पढ़ी थी, जिसकी पंक्तियाँ थीं: "सत्ता किरीट मणिमय आसन, करते मानव का तेज हरण! नर विभव हेतु ललचाता है, पर वही मनुज को खाता है!" इसमें विभव की जगह अगर वोट-बैंक रख दें तो एकदम्मे फिट बैठेगा आप पर!
वैसे हम आपके थोड़े-थोड़े फैन रहे हैं, पर अंधेवाले नहीं - काहे कि आप हमरा आ हमारे बच्चे का पेट नहीं भरते हैं! लेकिन ई जो आप सेम-साइड गोल किये हैं न ऊ एकदम्मे नास दिए हैं! अरे भाई, अपने चायवाले का तो सोचा होता जे अपनी बेटी के बियाह आ बच्चों को पढ़ाने के लिए पांच रुपये का सिक्का जमा करके 500 आ 1000 का नोट बनवाए थे! उनको आपने दिया क्या वो तो मैं नहीं जानता, पर पूरा ले मारे हैं - ई सामने है!
कुछ लोगों का मानना है कि ये शुध्दिकरण या धौली टाइप की प्रक्रिया है, जिसमें हमारे सरीखे लोगों को शुरू में कुछ कष्ट अवश्य होगा पर बाद में राष्ट्र का भला होगा! मोदीजी, ई पांच साल आप केवल एक्सपेरिमेंट ही करेंगे या कुछ सरजमीं पर दीखेगा भी? चुनाव के समय सबने पप्पू से डरकर आपको चुना| पर, आप हैं कि घिरे हैं महापुरुषों से – राजनाथ जैसे प्रतापी, जेटली जैसे ईमानदार और स्मृति जैसी साध्वी से!
मोदीजी, आप बाबा विश्वनाथ की काशी से चुनाव जीत के आए हैं, ये याद रखियेगा! ये वही काशी है, जहाँ बाबा विश्वनाथ और काशी नरेश को छोड़कर सब ‘भोंसड़ी के’ हैं – दशाश्वमेध पर! आप अभी तक बचे हैं – माता अन्नपूर्णा की कृपा से इस विभूषण को पाने से, पर इस बार होली में सब क्योटोवाले आपको गालियों का गंगास्नान करा ही डालेंगे!  
चलिए चुनाव २०१९ में है - तब तक हम अपना नमरी गिनते-गिनते भूल जायेंगे, पर उससे पहले अगर ऐसा मिस्टेक किये न त आपकी द्वारिका डूबनी तय है -- गर-गर मोदी के साथ!
मैं जानता हूँ कि मेरा ये पोस्ट देखकर sinister (लेफ्टी के लिए अंग्रेजी का एक प्रचलित शब्द) बहुत खुश होंगे यह कहकर कि एगो भक्त उनकी साइड आ गया, पर आपको मालूम है कि हम इनको लौड़े पर लेकर चलते हैं!
ईश्वर आपको जेटली की केटली से बचाए!
शुभाकांक्षी
संजीव

Saturday, November 5, 2016

एनडीटीवी पर प्रतिबन्ध के सन्दर्भ में

ये स्वतंत्रता नहीं स्वच्छंदता पर रोक है

क्या भारत की संप्रभुता खतरे में है? क्या यहाँ का नागरिक या संस्था स्वतंत्र है – अपनी अभिव्यक्ति से राष्ट्र की आतंरिक या बाह्य सुरक्षा से खेलने के लिए? बड़ा आश्चर्य होता है तब, जब लगभग पांच सौ साल मुस्लिम शासन और लगभग एक सौ साल के अंग्रेजी हुकूमत के दौरान साँसों पर भी प्रतिबन्ध झेल चुका ये देश निरोध और प्रतिरोध का फर्क समझने में आज भी कमोबेश नाकामयाब है|

प्रख्यात राजनीतिक चिन्तक एल. टी. हॉबहाउस ने अपनी पुस्तक ‘द एलिमेंट ऑफ़ सोशल जस्टिस’ में लिखा है: एक व्यक्ति या संस्था की निरंकुश स्वतंत्रता का अर्थ होगा कि बाकी सब घोर पराधीनता की बेड़ियों से जकड़े जाएँ | अतः दूसरी ओर से देखा जाय तो सबको स्वतंत्रता तभी प्राप्त हो सकती है जब सब पर कुछ-कुछ प्रतिबन्ध लगा दिये जायें!

प्रश्न है कि क्या एक टेलीविज़न चैनल देश के हर नागरिक का प्रतिनिधित्व करता है? अगर हाँ, तो प्रणय रॉय ही सुल्तान-ए-हिन्द होते! पठानकोट हमले पर एनडीटीवी के रिपोर्टिंग में क्या संतुलित दीखता है उनको? ऑपरेशन की लाइव कमेंटरी? या फिर हमले में मारे गए जवानों को एक दिन बाद शहीद कह कर पुकारना? या फिर जेएनयू के छात्र नेता कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे ‘संदिग्ध गतिविधियों में संलिप्त होने के आरोपित’ को धवल-चरित्र बताने के लिए विरोध में स्क्रीन काला कर लेना?

ये सच है कि पत्रकारिता का काम ही छिपे हुए तथ्यों को समाज के सामने प्रकाशित करना है| पर किस उद्देश्य के लिए? अंधे की लाठी के समान समाज तो धनात्मक दिशा प्रदान करने के लिए, या फिर कलियुगी शुक-सारंग की तरह शत्रुओं को अपने देश के मर्मस्थल का पता देने के लिए! पत्रकार सदैव इस देश के राजनेताओं के दामन दागदार होने की बात करते हैं, पर क्या उनके दामन दूध से धुले हैं? या फिर उनके दाग अच्छे हैं? या ‘पैरानॉयड सिजोफ्रेनिया’ से ग्रस्त माइक, कैमरा, और पैसे से किसी दूसरी दुनिया से आए हैं ये लोग?

न्यूनतम ज्ञान से अधिकतम लाभ लेना मीडिया घरानों का उसूल बन चुका है| एडिटोरियल का एडवर्टिजमेंट से घालमेल कराकर इनलोगों ने एक नई शुरुआत तक कर दी: ‘एडवर्टोरियल’ के नाम से| क्या मसाज पार्लर और पोर्न चैट के विज्ञापनों को प्रकाशित करने में अभिव्यक्ति की आज़ादी बरक़रार रहती है, पर देश के सैनिकों की कारर्वाई की गोपनीयता प्रकाशित करने पर रोक लगाने से नहीं? शायद ऐसे ही कुछ कारण हैं कि देश की नई पीढ़ी स्वयं को अख़बारों और चैनलों की दुनिया से दूर होते जा रहे हैं – व्यापार, मनोरंजन और खेल की खबरों को छोड़कर!

देश के आम आदमी विचारों को व्यक्त करने की आजादी संविधान में मौलिक अधिकार है| लेकिन संविधान के ही तहत इस आजादी पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाने का राज्य को अधिकार भी दिया गया है| देश में शिक्षा और चेतना के मौजूदा स्तर को देखते हुए स्वतंत्रता को स्वच्छंदता में तब्दील होने की छूट नहीं दी जा सकती है| इसलिए संसद को कानून बनाकर इस बारे में स्थिति स्पष्ट करनी होगी| खासकर देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा, सामाजिक चेतना जैसे संवेदनशील पहलुओं को देखते हुए तकनीकी प्रसार को रोकने के बजाय इसे बेकाबू होने से रोकने के उपाय करना वक्त की मांग है|